Radha – Hindi Review

अरभाट शॉर्ट फ़िल्म की सीरीज़ की तीसरी कड़ी में फ़िल्म ‘राधा- द इटरनल मेलोडी’ देखने को मिली. इस फ़िल्म का निर्देशन बिमल पोद्दार ने किया है. फ़िल्म को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में चयनित और सम्मानित किया जा चुका है. राधा एक एनीमेशन शॉर्ट फ़िल्म है. एनीमेशन होते हुए भी ये फ़िल्म दृश्य और अनुभूति के स्तर एक ‘रियलिस्टिक’ फ़िल्म होने का आभास देती रहती है. यह आभास इस कदर सच लगता है कि जैसे किसी सपने में रहते हुए भी आपको ये अहसास नहीं होता कि आप कोई सपना देख रहे हैं.

हिंदुस्तान में एनीमेशन को बच्चों के मनोरंजन की विधा के तरह देखा जाता रहा है. इसलिए हमारे देश में बनने वाली ज़्यादातर एनीमेशन फ़िल्में भी बच्चों को ज़ेहन में रखकर ही बनाई जाती रही हैं. इस मामले में ये फ़िल्म अपने दरवाज़े वयस्कों के लिए खोलती है ताकि इसका स्वाद हर वर्ग का दर्शक ले सके.

फ़िल्म दादी और पोते के बीच की आत्मीयता की कहानी कहती है जो उनके कई खूबसूरत यादों को जोड़कर वात्सल्य की एक मासूम तस्वीर बनाती है. इस तस्वीर में जहां एक ओर घर के लोहे का शटर खुलने पर किसी के आमद की ख़ुशी है, खाने का ज़ायका है, बचपन के खेल हैं, शरारतों की लड़ी है, वहीं मायूस दोपहरी भी है और पोते का इंतज़ार करते दादी की बेसब्र आंखें भी.

जब कोई शहर पुल से फ्लाईओवर के बीच बदलता है तो शहर महज़ बाहरी बदलाव से नहीं गुज़रता बल्कि रिश्तों के आतंरिक संबंधों को भी बदलता है. पुल से फ्लाईओवर के बीच के परिवर्तन ने भले ही यात्रा का समय कम कर दिया हो लेकिन रिश्तों के दरमियां दूरी बढ़ा दी है. कहानी में वक़्त गुजरने के साथ जैसे-जैसे पोता बड़ा होता है प्रेम धुंधला पड़ता जाता है. पोते की ओर से प्रेम की ये पकड़ ढीली होने की वजह नौकरी के लिए दूसरे शहर में जाना है.

फिल्म का पोस्टर.

फ़िल्म की कथा-भूमि कोलकाता शहर का मध्यवर्गीय परिवेश है. कहानी में परिवेश और कथा आपस में काफी घुली -मिली हैं, इसके बावजूद भी कोलकाता एक मुकम्मल किरदार के रूप में उभरता है और कहानी में आने वाले बदलाव शहर पर भी नज़र आते हैं. हालांकि फ़िल्म वैश्वीकरण के वैचारिक पक्ष को नहीं छूती पर उससे होने वाले गहरे भावनात्मक असर पर ज़रूर इशारा करती है. फ़िल्म के निर्देशक कहते हैं कि ये फ़िल्म मेरे तजुर्बे की फसल है. इसलिए इस फ़िल्म में निर्देशक जब अपना भोगा हुआ अनुभव उतारते हैं तो फ़िल्म बड़ी निष्कपट और खरी दिखती है.

संवाद की अनुपस्थिति फ़िल्म को और भी मजबूत बना देती है. दृश्य जब कहानी कहते हैं तो भावाव्यक्ति और मुखर हो उठती है. किरदार की जगह दृश्य संवाद बोलते हैं तो मन पर गहरे उतरते हैं. सरल और सहज कहानी हालांकि शब्दों पर मोहताज़ होने की मांग नहीं करती पर फ़िल्म का ‘नैरेटिव’ अतीत और वर्तमान के बीच निरंतर चहलकदमी करता रहता है.

पूरी फ़िल्म एक ख़ूबसूरत पेंटिंग की तरह है. आप अगर किसी एक दृश्य को फ्रीज कर दीजिये तो वो आपको ऐसा चित्र देगी कि आप उससे फ्रेम कर घर की दीवार पर लगा सकते हैं. रंगों का चयन और फ्रेमिंग इतनी दुरुस्त है कि वो उससे पैदा होने वाले भावों को उपयुक्त अभिव्यक्ति देती है. आनंद और उल्लास में चटक रंगों और भरपूर लाइट का इस्तेमाल और दुःख में गहरे और कम लाइट का प्रयोग किया गया है. ये फ़िल्म देखते हुए ऑस्कर और गोल्डन ग्लोब पुरस्कार से सम्मानित एनीमेशन फ़िल्म ‘अप’ बरबस ही याद आ जाती है. रंगों का सुन्दर संयोजन और उनका सटीक मात्रा में परोसा जाना ज़ेहन पर एक खूबसूरत असर छोड़ता है. फ़िल्म के निर्देशक कहते हैं कि मैं ‘फाइन आर्ट’ का स्टूडेंट रहा हूं, इसलिए मुझे पता है कि फ्रेम को कैसे बैलेंस किया जाए और किरदार को कहां रखा जाए जिससे कि वो दर्शकों को अनुभूति के स्तर पर दस्तक दे सके.

फिल्म का एक दृश्य.

फ़िल्म में बारीकियों को लेकर बड़ी सतर्कता बरती गयी है. खासकर लॉन्ग शॉट में जब कोलकाता शहर नज़र आता है या पूरा घर दिखता है तब फ्रेम में मौजूद छोटी छोटी चीज़ों को आप आराम से पहचान सकते हैं. एनीमेशन फ़िल्म में ये बारीकियां ये दर्शाती है कि फ़िल्म निर्माण में कितना श्रम और तप लगा है.

फ़िल्म को देखने के बाद आप महसूस करेंगे की ये फ़िल्म आत्मिक स्तर से आगे बढ़कर आध्यात्मिक स्तर पर भी दादी और पोते के अनुराग को नया अर्थ देती है. फ़िल्म कविता की तरह गुज़रती है, जो मन की कोमल भावनाओं और यादों को इस तरह सहलाती है कि आप अपने बचपन में फिर लौट जाएंगे. ये फ़िल्म एक ऐसा उदाहरण है जिसे एनीमेशन फ़िल्म कला के विश्व पटल पर भारत की एक दमदार नुमान्दगी की तरह गर्व से प्रस्तुत किया जा सकता है.

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